काव्यगगन( kavyagagan)

जब जब छलके अंतरमन,भावोंं की हो गुंजन,शब्द घटाओं से उमड़ घुमड़, रचते निर्मल ...'काव्यगगन'! यह रेणु आहूजा द्वारा लिखा गया ब्लाग है .जो कि उनकि निजि कवितओं का संग्र्ह है!it is a non profitable hobby oriented blog.containing collection of hindi poetries.

Monday, March 27, 2006

दिया सांझ का

सांझ ढ़ले,
गगन तले,
हर घर में दिया बाती जले,

मन की विष्रांती
कलेश क्लांति
पल भर को मौन हुए,

मन में राम,
कहीं अली,
गिरिजा का घंटा,
गुरुबानी कहीं

मन की श्रद्धा के
अनेकों नाम
कहीं अल्लाह,
कहीं भगवान

नारी रूप में
सर ढके
श्र्द्धा आस्था
संस्कार चुने,

मां के हाथों
जब दिया जले
मां के मन सी ही
बात कहे,

सांझ ढ़ले
गगन तले
जब जब
घर में दिया जले...!!!

Friday, March 24, 2006

मीना कुमारी - एक नाज़














मीना कुमारी उर्फ़ 'नाज़'-(०१ अगस्त'३२-३१ मार्च १९७२) अभिनेत्री ने लिखा था: -
mil gayaa hogaa agar ko’ii suneharii patthar
apnaa TuuTaa hu’aa dil yaad to aayaa hogaa
....varnaa aaNdhii meN diyaa kis ne jalaayaa hogaa

उनकी तारीफ़ में कुछ लफ़्ज़ दिल से एसे उठे:-
मीना... तुम
एक अदाकारा
एक फ़नकारा
हुस्न का सितारा थी
कि अजूबा कोई

या एक नक्काशी सी
खूबसूरत तस्वीर कोई
ना जानें इल्मों के कितने
नगीने थे तुममें

कितने अहसास,
कितने अंदाज़,
कितने अल्फ़ाज़,
छिपेे थे तुममें,

यूं ही नहीं इनको
लफ़्ज़ों का जामा पहनाया होगा,

जब जब ज़माने की
सर्द हवाओं ने सिहराया होगा
शायद वही दर्द
कभी शेर, कभी गज़ल,
तो कभी अदा बन कर
पर्दे पर उतर आया होगा

तुम न सही
तुमहारी याद ही सही
तुम न सही
तुम्हारा ख्याल ही सही
तुम न सही
तुमहारे जज़बात ही सही
दौर-ए-द्र्द में
इन्होंनें कितनों को
क्या क्या याद दिलाया होगा...!!!


-रेणु
चित्र साभार http://aligarians.com

Tuesday, March 21, 2006

दोस्ती पर एक क्षणिका

दोस्ती के चेहरे हज़ार होते है,
बंधे जिनसे मन के तार होते हैं,
कुछ शब्दों की मोहताज हो,
वो दोस्ती ही क्या,
दोस्त तो भरोसों का आफ़ताब होते हैं.
-रेणु

Tuesday, March 14, 2006

गुंडे की होली



(हास्य कविता)

सुनसान सड़क से मैं
रिक्शे में बैठी गुज़र रही थी
क्या करती जाने की
राह ही दूसरी नहीं थी
और एक स्कूटर को
पीछा करते देख रही थी
कि तभी स्कूटर ने किया ओवरटेक
मेरे विचारोंं को भी लगी ब्रेक

इससे पहले के मैं कुछ समझ पाती
गरज उठा वो स्कूटर धारी
"ंमैड़्म ये पर्स इधर लाओ"
इससे पहले की संभल पाती
या बचाव का रास्ता अप्नाती
पर्स स्कूटर धारी के पास था
मैं समझ गई की मामला खतरनाक था.

पर जाने क्या सूझी,
एक तो स्त्री, ऊपर से कवियत्री
चुप रह्नें से बाज़ ना आई
इतनी विकट सिथित में भी
किवता ही ज़ुबां पर आई

मैं बोली "ले जाओ ये सामां,
ये प्र्स, ये पैसे,
पर इनमें कुछ फ़ोटो हैं एसे
जो मेरी यादों का समंदर हैं
दिल आशनां हो िजस पर
वो तूफ़ां उसके अंदर है
दिखनें शांत पर
असल में बवंड़्र हैं
वो मेरी आस,
वो मेरा प्यार,
न ले जाओ
पितदेव की प्यारी
फ़ोटो लौटा जाओ

वो पलटा एसे
बेमौसम की बिरश हो जैसे
और बोला "वापिस ले लो ये
पूरा-ई-च पर्स,
आखिर एक कलाकार का
दूजे कलाकार के लिये भी
होता है कुछ फ़्र्ज़"

अब के बारी मेरी थी
चौक के मैं भी कड़्की एसे
शोहेब अख्त्र की फ़्रांट बॊल पर
छ्क्का लग गया हो जैसे
बोली"तुम किस बात के कलाकार हो,
राह चलतोंंं को लूटते हो
और कला को बद्नाम करते हो?"

वो बोला" मैड़म आप भी कमाल हैं,
ये काम क्या कोई मस्ती ध्माल है ?
इसके लिये भी-:
चाहिये लगन
काम की अगन
एक अंदाज़,
एक प्र्यास,
नज़र पैनी
मुंह मे खैनी,
कमर कस्ना
पुलिस से बचना,
किस्को लूटें,
ये समझना,
लुकते छिपते
पीछा करना
किसी को घेर
बिना किये देर
पल में लूटो
बिना लगे हाथ
खाए बिना मार
हो लो कंही गोल
बिना कुछ बोल

ड़र रहे सदा
मिलेगी सज़ा
होगा कल क्या
नहीं ये पता

फ़िर भी हर दिन
लिये एक आस
कि लगे कुछ हाथ
करते चोरी
सीना जोरी
नहीं ये खता
ये भी है अदा
ओ मैड़म बता
क्या नहीं ये कला ?

इससे पह्ले की
कुछ समझाती
बोला खुराफ़ाती

मैने अपना निभाया है
आप भी अपना फ़्र्ज़ निभाओ
जाते जाते मेरा भी
एक शेर सुनती जाओ

कह्ना था -"चुप बद्माश"
मगर आनायास
निकल गया
मुंह से "इर्शा़द"

वो बोला
" एक ग़रीब पेट पालने को
जाने क्या क्या सप्ने संजोता है,
बन जाता है चोर ,
मगर वो भी इंसान होता है"

समझ गई मैं-
कि कभी कभी ऐसा भी होता है,
ज़िदंगी की रंगोली में,
एक रंग एसा भी होता है,
जो काला ही सही
बुरा ही सही,
बद्नाम ही सही,
पर गुमनामी का भार
ख़ुद पर ढोता है,
दाग़ का भी,
अपना ही एक रंग होता है,
चोरों के सीने में भी....
इंसानियत भरा िदल होता है.!!!

Saturday, March 11, 2006

नवरंग

नवरंग
सच है इत्ना ही की,
पैसा लील गया सभी

रंग, गुलाल,
भांग, अबीर
प्रेम रंगोली
हृद्य की झोली

उडते रंग
और हंसी ठिठोली,
नेह की भाषा
स्नेह की बोली

फ़िर भी एक रंग
रहा अछूता
पावन, ष्रेय्स,
मृदुल, धवल सा

नाम है इसका
मन की आशा
जब तक है इस्का
अस्तित्व
ह्र रंग रहेगा
सरस सजल सा.
-रेणु आहूजा.

Wednesday, March 01, 2006

ममता का समंदर















ममता का समंदर मां के अंदर
खुली बाहों सा आकाश
स्मित चांदनी लिया सा मुखड़ा
छलकती हंसी जैसे प्रभाश

बिछी रेत पर मेरा चलना
था अनुभव भावी जीवन का
नन्हें निर्मल बचपन के कदम
थे जिन पर तेरे सदा नयन

मेरा जीवन तेरी धड़कन
हर पल मुझे कुछ सिखलाना
कभी छोड़ कर अंगुली मेरी
स्वतंत्र दिशा मुझे दिखलाना

तेरे कारण जीवन पथ पर
चला र्निभीक अभय सध कर
और जब जब पाई मैनें गति
मां तब तब तेरी हंसी खिली

आज भी जब सोचा करता हूं
उस सगर तट के वो दिन
बचपन के खेलों में तूने
जहां सीख अनेंकों दी हर दिन

सक्षम सबल अभय अटल
बना उन्हीं खेलों से था
संजो वही संस्कार भावना
बना हर संघर्ष का भी योद्धा
-रेणु आहूजा
साभार http://www.hindinest.com

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