गुंडे की होली
(हास्य कविता)
सुनसान सड़क से मैं
रिक्शे में बैठी गुज़र रही थी
क्या करती जाने की
राह ही दूसरी नहीं थी
और एक स्कूटर को
पीछा करते देख रही थी
कि तभी स्कूटर ने किया ओवरटेक
मेरे विचारोंं को भी लगी ब्रेक
इससे पहले के मैं कुछ समझ पाती
गरज उठा वो स्कूटर धारी
"ंमैड़्म ये पर्स इधर लाओ"
इससे पहले की संभल पाती
या बचाव का रास्ता अप्नाती
पर्स स्कूटर धारी के पास था
मैं समझ गई की मामला खतरनाक था.
पर जाने क्या सूझी,
एक तो स्त्री, ऊपर से कवियत्री
चुप रह्नें से बाज़ ना आई
इतनी विकट सिथित में भी
किवता ही ज़ुबां पर आई
मैं बोली "ले जाओ ये सामां,
ये प्र्स, ये पैसे,
पर इनमें कुछ फ़ोटो हैं एसे
जो मेरी यादों का समंदर हैं
दिल आशनां हो िजस पर
वो तूफ़ां उसके अंदर है
दिखनें शांत पर
असल में बवंड़्र हैं
वो मेरी आस,
वो मेरा प्यार,
न ले जाओ
पितदेव की प्यारी
फ़ोटो लौटा जाओ
वो पलटा एसे
बेमौसम की बिरश हो जैसे
और बोला "वापिस ले लो ये
पूरा-ई-च पर्स,
आखिर एक कलाकार का
दूजे कलाकार के लिये भी
होता है कुछ फ़्र्ज़"
अब के बारी मेरी थी
चौक के मैं भी कड़्की एसे
शोहेब अख्त्र की फ़्रांट बॊल पर
छ्क्का लग गया हो जैसे
बोली"तुम किस बात के कलाकार हो,
राह चलतोंंं को लूटते हो
और कला को बद्नाम करते हो?"
वो बोला" मैड़म आप भी कमाल हैं,
ये काम क्या कोई मस्ती ध्माल है ?
इसके लिये भी-:
चाहिये लगन
काम की अगन
एक अंदाज़,
एक प्र्यास,
नज़र पैनी
मुंह मे खैनी,
कमर कस्ना
पुलिस से बचना,
किस्को लूटें,
ये समझना,
लुकते छिपते
पीछा करना
किसी को घेर
बिना किये देर
पल में लूटो
बिना लगे हाथ
खाए बिना मार
हो लो कंही गोल
बिना कुछ बोल
ड़र रहे सदा
मिलेगी सज़ा
होगा कल क्या
नहीं ये पता
फ़िर भी हर दिन
लिये एक आस
कि लगे कुछ हाथ
करते चोरी
सीना जोरी
नहीं ये खता
ये भी है अदा
ओ मैड़म बता
क्या नहीं ये कला ?
इससे पह्ले की
कुछ समझाती
बोला खुराफ़ाती
मैने अपना निभाया है
आप भी अपना फ़्र्ज़ निभाओ
जाते जाते मेरा भी
एक शेर सुनती जाओ
कह्ना था -"चुप बद्माश"
मगर आनायास
निकल गया
मुंह से "इर्शा़द"
वो बोला
" एक ग़रीब पेट पालने को
जाने क्या क्या सप्ने संजोता है,
बन जाता है चोर ,
मगर वो भी इंसान होता है"
समझ गई मैं-
कि कभी कभी ऐसा भी होता है,
ज़िदंगी की रंगोली में,
एक रंग एसा भी होता है,
जो काला ही सही
बुरा ही सही,
बद्नाम ही सही,
पर गुमनामी का भार
ख़ुद पर ढोता है,
दाग़ का भी,
अपना ही एक रंग होता है,
चोरों के सीने में भी....
इंसानियत भरा िदल होता है.!!!
6 Comments:
ये कविता थोडी लम्बी है, पर आपका प्रयास अच्छा है।
दीपक जी,
ये कविता अचानक ही एक घट्ना को याद कर्ते हुए लिखी थी, सो उस्का ब्यौरा और संवादत्मक शैली, के कार्ण यह किवता लंबी है, अक्स्र इस प्र्कार की किवताएं अपने घटना िवव्रण के कारण और किव के िव्श्लेषण व काल्पिनक्ता के सिम्मषृण के कारण, क्भी कभी लंबी हो जाती है, हालांकी हाल ही में एक काव्य गोष्ठी में इस किवता के वाचन मे मात्र ५ मिनट ही लगे थे. तथापि हमारा प्र्यास रहेगा की पाठ्कों की द्रिष्ट से किवता का कलेवर लघु ही रखें.
Renu ji,
Namaskaar........
Achi kavitaa,Hasya-vyanga ka acha udaaharan.
Hume lagta hai ki hum aap se kaafi kuch seekh sakte hain.Aur ummeed hai ki aap sahyog dengi.
Vikas Dwivedi
Research Engineer
C-DOT,New Delhi
Ph:09868945544
good
विकास जी,
आपको किवता पसंद आई , प्रशंसा के लिए धन्यवाद !
Really it is a nice work done by u, I like ur poem.May god give u the power to understand these types of real things and present u in a very simple way,so that we normal people can understand. Once again it is nice work.
Manoj Kumar
Makahnal universiaty, computer department,
Bhopal. manojmca75@rediffmail.com
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