'प्रेम'

गोपी भेंट उद्धव जब आए
सहज ग्यान भंड़ार थे वो
विरह अग्नि की शांति मात्र के
सुलभ साधन मात्र थे वो
कृष्णसखा ने यही सोच कर
भेजा था उद्धव को ही
ग्यान ध्यान से जीत न पाए
कदाचित प्रेम दावानल भी
पर हुई उल्टी ही परिभाषा
भई विजित नेह सरिता
जड़ चेतन में, कण कण में
हर अश्रु और हर नयन में
राधा संग हर गोपी मन में
वाणी के शब्दों से आगे
चक्षु नीर की हदों से आगे
एक समर्पण छाया था
नतमस्तक हो गया ग्यान भी
छवी उभरी कृष्ण मुरारी की
मूक बधिर हुआ ग्यान सिंधु तब
अवचेतन मन हुआ प्रबुद्ध तब
न कोई 'मैं' थी , न कोई' वो' था
न कोई 'अहं' , न ही 'संशय' था
अर्पण समर्पण से सिक्त हुआ सा
सात्विक प्रेम का स्वर्णिम क्षण था
यही प्रेम की संचित भाषा,
यही नेह की अथाह परिभाषा
ग्यान विग्यान दर्शन भी सफ़ल तब
रहे नेह में निष्ठा जब तक.!!!
-रेणू आहूजा.